भारतीय पुलिस व्यवस्था की विशवसनीयता.. :- लेखक कपिल देव

मैट्रो मत न्यूज ( लेखक कपिल देव ) किसी भी समाज देश एवं शासन ब्यवस्था में पुलिस की कार्यप्रणाली एवं विस्वशनीयता कानून के शासन का दर्पण है। सफल पुलिस ब्यवस्था से न केवल उस देश / प्रान्त की सफलता का सूचक है बल्कि अन्य देशों की मार्ग दर्शिका के रूप में भी कार्य करता है। कानून को उचित तरीके से लागू करना नागरिको में कानून ब्यवस्था का भरोसा पैदा करना पुलिस का पहला कार्य है। आदर्श पुलिस कार्य प्रणाली कैसी है , इसपर बड़े अधिकरियो , न्यायविदों एवं जन – नेताओं मे एक अनंत बहस जारी है। कानून को पूरी तरह से नागरिक माने , पुलिस का सम्मान (?) करें या उससे भयाक्रांत रहें इस पर भी लगातार पुलिस बुध्धिजीवियो एवं नेताओं के निशाने पर लगातार रहती है। पूर्व के कुछ उदाहरणों एवं परिस्थितियों में जाने से ऐसा लगता है कि परिस्थितिजन्य कारणों से पुलिस के कार्यों पर संसय भी उठता है। पुलिस ब्यवस्था की बिफलता के कार ऐतिहासिक भी रहें हैं। भारत में अंग्रेजी राज्य में पुलिस की निष्ठा सीधे तौर पर साम्राज्य सेवकों के रूप में ही रही है और ऐसा मानने का कोई कारण नहीं था कि यह भारत की जनता के हित में कार्य करें परन्तु साम्राज्य सेवक के रूप में कार्य करें। परन्तु साम्राज्य सेवक के रूप में उसका कार्य पूर्ण था। अंग्रेज सत्ता ने पुलिस ब्यवस्था को इसप्रकार कस कर रखा था कि जनता की सहानुभूति उसके साथ कतई नहीं थी। स्वतंत्रता के उपरांत भी पुलिस का ब्यवहार लगभग अंग्रेजों के शासन काल जैसा ही रहा हैं। पुलिस के इस आचरण एवं कार्य प्रणाली का राजनेताओं एवं दलो ने अपने वैचारिक बिरोधिंयों का दमन एवं लगाम लगाने में भरपूर उपयोग किया। इन्हीं बिरोधों एवं जनबिरोधी आचरणों के बीच पूरी पुलिस ब्यवस्था की समीक्ष! करने की बात भी समय -२ पर की गयी एवं उसे पूरी तरह से जन सेवक संस्था का रूप देने के प्रयास करने की मांग उठी। १९७८ - ८२ में पुलिस सुधार आयोग का गठन किया गया। उसने अपनी रिपोर्ट में सुधार की महत्वपूर्ण अनुशंसा भी किया है। पर इस सबके होने पर अभी ढाक के तीन पात ही क्यों रहे। एक मुस्त रूप से पुलिस सुधार लागू होने मे क्या क्या बाधाएं हैं , उन्हें दूर करके लागू क्यों नहीं किया जा रहा है , यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। जब भी कोई सत्ता में दल होता है उसे क्यों ईमानदार , कर्तब्य निष्ठ अधिकारी नहीं चाहिए एवं क्यों ही वह पुरानी ब्यवस्था पर अधिक भरोसा जताता है , यह एक खुला रहस्य है। यदि दस में एक पारदर्शी पुलिस तंत्र हो तो कुछ घटनाएं एवं उनकी बिभीषिका कम हो सकती थी , यदि उनकों रोका न भी जा सकता था तो भी । सन १९८४ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी की हत्या के पश्चात दिल्ली एवं देश के अन्य लोगों में कानून ब्यवस्था काबू में न रह सकी एवं भारी मात्रा में सिख बिरोधी दंगें हुए। देश में हजारों लोगों की हत्या हुई। राजधानी दिल्ली भी दंगों का एक केंद्र बनकर उभरी एवं यहाँ भी तीन दिनों तक ऐसा लगा कि पुलिस का कहीं पता नहीं है। लेखक उस दुर्भाग्य पूर्ण घटना का सा‌‌‌‌‌‌‌‌__ रहा है। इस घटना में कैसे कैसे हत्या के बाद दंगों का फैलाव हुआ और पुलीस उसे क्यों रोक नहीं पायी आजतक रहस्य ही है। सन १९९२ में बाबरी ध्वंन्स के पश्चात बम्बई में हुए दंगों में में कानून ब्यवस्था भंग हुई एवं काफी जन - धन हानि हुई और जबतक पुलिस नेतृत्व श्रीकांत बापट के हाथ से लेकर अमर जीत सिंह सामरा को नहीं दिया गया, शांति स्थापित नहीं हो सकी। दंगों के पश्चात मुस्लिम सड़क पर नमाज एवं हिन्दू महा आरती करने लगे। और नए पुलिस आयुक्त ने दोनों समुदाय को तत्परता से रोकने पर मामला शांत हुआ। लेकिन पुलिस ब्यवस्था अपनी कमजोरी जनता के सामने दिखा चुकी थी। इसके पश्चात् गुजरात में सन २००२ में साबरमती एक्सप्रेस में ५८ यात्रियों को जीवित जला देने के पश्चात गोधरा एवं गुजरात के अन्य स्थानों पर दंगें भड़के। इस दंगें की चर्चा बर्तमान प्रधानमंत्री जबतक गुजरात के मुखयमंत्री रहे उनपर दोष लगाने के लिए अनवरत उसकी चर्चा चलती रही। उनके बिरोधी दल सदैव उनका रास्ता रोकने एवं उनकी छबि धूमिल करने में उन दंगों का सन्दर्भ देते रहे। इस आपदा में पुलिस की क्या भूमिका था अभी भी उसका नीर क्षीर विवेक नहीं हो पाया है। क्या पुलिस की सावधानी साबरमती एक्सप्रेस के तीर्थयात्रियों को बचा सकती थी। क्या पुलिस को तत्परता दंगों को बढ़ने से रोक सकती थी , यह अब एक शोध का ही विषय है। पेशेवर पुलिस ब्यवस्था क्या कानून ब्यवस्था का स्वतंत्र सचालन एवं नियन्रण करते हुए इस प्रकार की आपात के घटनाओं को रोक सकती है , इसपर कब बिचार करके पूरी ईमानदारी से इसपर कार्य हो सकता है। अभी अभी २०२० के हाल ही में हुए दिल्ली के सीएए के बिरोध एवं समर्थन के बीच में दिल्ली में हुए दंगे में ५३ से अधिक लोग मारे गए एवं पुलिस पर आरोप लगा की उसने समुचित कार्यवाही नहीं की। संसद में भी इस मामले पर बहस हुई और केंद्रीय गृहमंत्री ने उन तमाम प्रश्नो का उत्तर भी दिया परन्तु एक अनहोनी घटना उत्तरपूर्बी दिल्ली में हो ही गयी और पुलिस ब्यवस्था अपेक्षित प्रभावी नहीं रही। प्रशासनिक कारणों से जहाँ भी कार्य नहीं होता वहां पुलिस की छबि अच्छी नहीं बनती और उन्हे अपने रक्षक के रूप में कदापि नहीं देखती। जनमानस , चाहे बहुसंखक समाज ही हो या अन्य ,उनको भरोसा नहीं होगा की पुलिस आपातकाल में उनकी सहायता कर पायेगी। चूँकि पुलिस अधिनियम १८६१ एक बहुत ही पुराना कानून जिसके अनुसार पुलिस का संचालन होता है। राष्ट्रीय पुलिस कमिशन ( १९७८-८२) गठित करके इस में लगभग २४० सुधार की अनुसंशा की थी। इसके बाद इसमें सुधार के लिए नया आदर्श पुलिस अधिनियम २००६ लाया गया पदनामभैया कमेटी (२०००) मलीनाथ कमेटी (२००२-०३) का गठन करके सुझाव मांगे गए। चूँकि पुलिस राज्य का बिषय है और केंद्र का हस्तक्षेप एक सीमा से अधिक नहीं हो सकता है। परन्तु जनता को इस आवश्यक विभाग जो की उनकी सुरक्षा एवं आत्मबिस्वास से सीधा जुड़ा है , कब तक टाला जा सकता है। क्या भारत की जनता को इसकी अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी होगी। जो ब्यवस्था अंग्रेजी राजकाज में सहायक हो , उस ब्यवस्था का नूतन रूप इस आधुनिक काल में कितना ब्यवहारिक होगा , एक सोचनीय एवं करणीय बिषय है। मलिमथ कमेटी (२०००) ने लगभग ४९ अनुसंसाए की है। जिसमे पुलिस की पेशागत सुधार , आंतरिक सुर में पुलिस की भूमिका , पुलिस में भर्ती एवं प्रशि ण तथा पदोनन्ति की ब्यवस्था पुलिस के लिए है शिकायत जिसमे प्राथमिक सूचना रिपोर्ट न दर्ज करना आदि है गृहमत्रालय द्वारा गठित एक समित ने जोकि आदर्श पुलिस अधिनियम लागु करने की बात कही है। उसकी मुख्य अनुसंशा पुलिस पेशेवरता को बढ़ावा देना है उत्तरदाईत्व एवं जबाबदेही एवं सेवा शर्तों में सुधार है। एक अन्य बात जो पुलिस की कार्य मता को प्रभावित करती है वह प्रति लाख जनसँख्या पर पुलिस फ़ोर्स। भारत में १३८ संख्या है जबकि सयुंक्त राष्ट्र द्वारा रखें मानदंड के अनुसार ३०० होना चाहिए। कुछ राज्यों में तो यह औसत और भी नीचे है। इसका सीधा असर पुलिस के नैतिक एवं कार्य मता पर पड़ना अनिवार्य है। यदि भारत को एक स्वस्थ लोकतंत्र एवं शांत समाज के रूप रहना एवं भौतिक सफलता प्राप्त करना है तो अतिशीघ्र पुलिस ब्यवस्था पर धयान देना पड़ेगा। इसपर बिलम्ब करने पर ढेर सारे कानून ब्यवस्था की समस्या भविष्य में और बढ़ेगी ।


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